दुनिया की तरक्की और निर्माण में अगर किसी वर्ग का सबसे अधिक और मूलभूत योगदान है तो वह निःसंदेह मज़दूर वर्ग है। चाहे आकाश को छूती इमारतें हों या सड़कें, पुल हों या कारख़ाने, खेतों की हरियाली हो या उद्योगों की चहल-पहल यह सब कुछ मज़दूरों की दिन-रात की मेहनत, उनके बहते पसीने, झुके हुए कंधों और घावों से भरे शरीर की वजह से है। वे सर्दी की कठोरता, गर्मी की तपन, वर्षा की बूँदों और धूप की तीव्रता की परवाह किए बिना केवल दो वक़्त की रोटी और अपने परिवार की भलाई के लिए अपने आप को मेहनत व मशक्कत के हवाले कर देते हैं। उनकी मेहनत हमारे आराम का आधार है और उनकी कुर्बानी (बलिदान) हमारे जीवन की सुविधाओं की गारंटी ।वह न किसी पुस्तक का नायक (हीरो) है न किसी फिल्म का पात्र। उसके हाथों में कलम नहीं हथौड़ा है। उसकी ज़ुबान पर वाक्पटुता नहीं, मौन है। उसके वस्त्र धूल से सने होते हैं और चेहरा समय से पहले झुर्रियों से भर जाता है। फिर भी वही “बंदा-ए- मज़दूर” है जो दुनिया को बसाता है, जो दीवारें खड़ी करता है, खेतों को हरा-भरा करता है और मशीनों को चलने की शक्ति देता है। उसकी कहानी वही है जो सदियों से दोहराई जा रही है। मेहनत वह करता है लाभ कोई और उठाता है। सपना वह देखता है, साकार किसी और को होता है।लेकिन यह कितना अफसोसनाक और विडंबनापूर्ण है कि वही मज़दूर जो प्रगति के हर पहिए को चला रहा है। वह स्वयं जीवन की बुनियादी सुविधाओं से वंचित है। उसे न उचित मज़दूरी मिलती है, न सुरक्षा , न सम्मान और न ही कोई स्थायी भविष्य। मज़दूर दिन भर पसीने से तर रहता है,फिर भी अक्सर शाम को भूखा ही सोता है। उसके बच्चे शिक्षा से वंचित, पत्नी चिकित्सा से दूर और वह स्वयं बुढ़ापे में भी मज़दूरी करने को विवश होता है। आज जब दुनिया चाँद पर बस्तियाँ बसाने की बात कर रही है मज़दूर अब भी न्याय और सम्मान के एक छोटे से अंश के लिए तरस रहा है। “मज़दूर” शब्द का अर्थ और भावार्थ:शब्द “मज़दूर” फ़ारसी भाषा से लिया गया है जिसमें “मज़द” का अर्थ है वेतन (मजूरी/दिहाड़ी) और “वर” का अर्थ है लेने वाला। अर्थात वह व्यक्ति जो श्रम (मेहनत) के बदले पारिश्रमिक (वेतन) प्राप्त करता है उसे मज़दूर कहा जाता है। हिंदी में भी मज़दूर का अर्थ केवल शारीरिक श्रम (शरीर की मेहनत) करने वाले व्यक्ति तक सीमित नहीं है बल्कि वह हर व्यक्ति जो अपनी मेहनत, योग्यता , समय या ऊर्जा को किसी संस्था या दूसरों की सेवा में लगाता है और बदले में रोज़ी-रोटी कमाता है ‘मज़दूर’ कहलाता है। चाहे वह किसान हो,बढ़ई , लोहार, फ़ैक्ट्री मज़दूर हो या एक लिपिक (क्लर्क) या अध्यापक। सब अपने-अपने क्षेत्र में मज़दूर ही होते हैं।समाज की नींव मज़दूर की मेहनत पर टिकी होती है। वह हर विकास, हर निर्माण और हर सुविधा के पीछे एक मौन पात्र होता है। कारखानों, खेतों, सड़कों, इमारतों और बाज़ारों में उसका दिन-रात का परिश्रम समाज को गतिशील बनाए रखता है। मज़दूर केवल एक व्यक्ति नहीं बल्कि वह वर्ग है जो अपने खून-पसीने से अर्थव्यवस्था का पहिया घुमाता है और यदि वे न हों तो समाज अपंग हो जाए। इमारतें अधूरी, खेत बंजर , कारख़ाने सुनसान और जीवन की सारी सुविधाएँ ठप सी जाएँ। उनके बिना विकास की कल्पना भी नहीं की जा सकती। ये वे मौन सेवादार हैं जो अपनी मेहनत से दूसरों का जीवन सहज बनाते हैं पर स्वयं अक्सर मूलभूत ज़रूरतों से वंचित रह जाते हैं। उनका होना एक सुदृढ़ , संतुलित और सक्रिय समाज की गारंटी है। इसलिए उनकी क़द्र करना, उनके अधिकारों की रक्षा करना और उनके कल्याण हेतु ठोस उपाय करना हर जागरूक समाज की पहली ज़िम्मेदारी है।मजदूर की सियासी और आर्थिक बिसात :मज़दूर किसी भी देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ की हड्डी होता है परंतु दुर्भाग्यवश उसकी राजनीतिक और आर्थिक स्थिति को अक्सर नज़रअंदाज़ कर दिया जाता है। देश की अर्थव्यवस्था का बड़ा हिस्सा उनकी मेहनत पर टिका होता है इसके बावजूद उन्हें अक्सर कम वेतन, असुरक्षित वातावरण और अस्थिरता व अनिश्चितता जैसी समस्याओं का सामना करना पड़ता है। आर्थिक स्तर पर वह रोज़मर्रा की आवश्यकताओं के लिए भी संघर्ष करता है फिर भी गरीबी रेखा के नीचे जीवन जीने को मजबूर होता है।राजनीतिक रूप से मज़दूर एक बड़े तबके और एक बड़ी शक्ति रखते हैं लेकिन संगठित न होने के कारण उसकी आवाज़ कमज़ोर हो जाती है। कुछ मज़दूर यूनियनें और संगठन उनके अधिकारों के लिए सक्रिय तो हैं पर उनकी पहुँच सीमित है। मज़दूरों के अधिकारों की रक्षा, उनके कल्याण के लिए प्रभावी नीतियाँ बनाना, राजनीतिक भागीदारी और न्यायपूर्ण आर्थिक वितरण आवश्यक है ताकि वे सम्मानजनक जीवन जी सकें और राष्ट्रीय विकास में सक्रिय भूमिका निभा सकें।विश्व मज़दूर दिवस और उसका उद्देश्य:हर वर्ष 1 मई को पूरी दुनिया में “विश्व मज़दूर दिवस” मनाया जाता है जो मज़दूर तबके के अधिकारों, बलिदानों (कुर्बानियों) और संघर्ष को कृतज्ञता-सुमन अर्पित करने का दिन होता है। इस दिन की नींव 1886 ई॰ में अमेरिका के शिकागो शहर में रखी गई जब मज़दूरों ने आठ घंटे काम, आठ घंटे आराम और आठ घंटे व्यक्तिगत जीवन के लिए आंदोलन शुरू किया। पुलिस की ज़ालिमाना कार्रवाही में कई मज़दूर शहीद हो गए और उनकी कुर्बानी को यादगार बनाने के लिए यह दिन इतिहास का हिस्सा बना। बाद में पूरी दुनिया के श्रमिकों ने इस दिन को एकजुटता , माँगों और अधिकारों के प्रतीक के रूप में मनाना शुरू किया।मज़दूर दिवस मनाने का उद्देश्य केवल रैलियाँ, भाषण या सरकारी छुट्टी नहीं होना चाहिए बल्कि यह दिन एक सामाजिक चेतना की जागरूकता का माध्यम बनना चाहिए। इसका असली संदेश यह है कि समाज में मज़दूरों को सम्मान, बेहतर वेतन, सुरक्षित कार्य स्थितियाँ और सामाजिक सुरक्षा (सुरक्षा कवच) दी जाए।दुर्भाग्यवश आज यह दिन औपचारिकताओं तक सीमित होकर रह गया है जबकि मज़दूर अब भी ग़रीबी, महरूमी, शोषण और अनिश्चित भविष्य से जूझ रहा है।इस दिन को सच्चे अर्थों में प्रभावशाली बनाने के लिए व्यावहारिक कदम और मज़दूर हितैषी पॉलिसियाँ आवश्यक हैं।मज़दूरों के अधिकारों के लिए राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर किए गए प्रयास:दुनिया की अर्थव्यवस्था और विकास का पहिया मज़दूरों की निरंतर मेहनत से ही चलता है। फैक्ट्रियों की गूंज, खेतों की हरियाली, सड़कों की चाल, इमारतों की ऊँचाई और मशीनों की गति ये सभी मज़दूरों के खून, पसीने और समर्पण का परिणाम हैं। एक मज़दूर केवल आर्थिक विकास में ही नहीं बल्कि सामाजिक व्यवस्था को संतुलित बनाए रखने में भी सहायक होता है। लेकिन यह विडंबना है कि वही मज़दूर जो दुनिया की तरक्की की नींव है अक्सर अभाव, गरीबी, शोषण और मूलभूत सुविधाओं से वंचित होता है।इसी समस्या की गंभीरता को देखते और समझते हुए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर और विशेष रूप से भारत में मज़दूरों की सुरक्षा, कल्याण और अधिकारों के लिए कई संगठन और कानून अस्तित्व में आए हैं जिसमें अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर, मज़दूरों के लिए सबसे प्रभावशाली संस्था है अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (International Labour Organization – ILO), जिसकी स्थापना 1919 में हुई थी। यह संयुक्त राष्ट्र की एक एजेंसी है जिसका उद्देश्य विश्वभर के श्रमिकों को सम्मानजनक कार्य, उचित वेतन, सुरक्षित कार्य वातावरण और सामाजिक सुरक्षा प्रदान करना है। ILO ने “डिसेंट वर्क एजेंडा” के माध्यम से ऐसे वातावरण को बढ़ावा दिया है जहाँ हर व्यक्ति को समान अवसर मिले।इसके अलावा इंटरनेशनल ट्रेड यूनियन कन्फेडरेशन (ITUC) भी दुनिया भर की ट्रेड यूनियनों को एकजुट कर मज़दूरों की आवाज़ को मज़बूती देता है। ह्यूमन राइट्स वॉच और एमनेस्टी इंटरनेशनल जैसी मानवाधिकार संस्थाएँ भी जबरन श्रम, बाल श्रम और अमानवीय कार्य स्थितियों पर रिपोर्टिंग और दबाव बनाकर सरकारों को कार्रवाई करने पर मजबूर करती हैं।भारत में मज़दूरों की एक विशाल आबादी है जिनकी सुरक्षा के लिए अनेक संगठन सक्रिय हैं। इनमें भारतीय मज़दूर संघ (BMS), ऑल इंडिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस (AITUC) और सेंटर ऑफ इंडियन ट्रेड यूनियन्स (CITU) जैसे संगठन मज़दूरों का प्रतिनिधित्व करते हैं। ये संगठन न केवल मज़दूरों के अधिकारों की वकालत करते हैं बल्कि उनके सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक मुद्दों को उजागर कर समाधान की दिशा में काम करते हैं। सेल्फ-एम्प्लॉयड वीमेन एसोसिएशन (SEWA) विशेष रूप से असंगठित क्षेत्र की महिला श्रमिकों के लिए कार्य करती है।भारत सरकार ने भी मज़दूरों के हित में कई कानून बनाए हैं। मिनिमम वेजेज़ एक्ट (1948) मज़दूर की न्यूनतम मजदूरी निर्धारित करता है ताकि शोषण न हो। फैक्ट्रीज़ एक्ट (1948) कार्य स्थल को सुरक्षित और स्वस्थ बनाए रखने का प्रावधान करता है। वर्कमेन कम्पन्सेशन एक्ट (1923) के तहत कार्यस्थल पर घायल या मृत मज़दूर को या उसके परिवार को मुआवज़ा दिया जाता है। ईएसआई एक्ट (1948) मज़दूरों को चिकित्सा सुविधा और बीमा प्रदान करता है। नए समय की माँग को देखते हुए कोड ऑन वेजेज (2019) और अन्य लेबर कोड्स (2020) द्वारा पुराने कानूनों को सरल और प्रभावी बनाया गया है।सरकार की योजनाओं में श्रम सुविधा पोर्टल एक ऑनलाइन मंच है जहाँ मज़दूर अपनी समस्याएँ दर्ज करा सकते हैं। ई-श्रम कार्ड के माध्यम से असंगठित क्षेत्र के मज़दूरों का डेटा इकट्ठा किया जा रहा है ताकि उन्हें विभिन्न योजनाओं से जोड़ा जा सके। प्रधानमंत्री श्रम योगी मानधन योजना एक पेंशन योजना है जिसमें पंजीकृत मज़दूर 60 वर्ष की उम्र के बाद मासिक पेंशन के पात्र होते हैं। मनरेगा योजना ग्रामीण मज़दूरों को वर्ष में न्यूनतम 100 दिन का रोज़गार देती है।इन सभी प्रयासों के बावजूद, मज़दूर वर्ग आज भी अनेक कठिनाइयों का सामना कर रहा है। इन कानूनों और योजनाओं को केवल कागज़ों तक सीमित न रखा जाए बल्कि ज़मीनी स्तर पर उनका क्रियान्वयन ( implementation) सुनिश्चित किया जाए ताकि मज़दूरों को वह सम्मान और सुविधाएँ मिल सकें जिसके वे वास्तव में हकदार हैं। समाज की सच्ची प्रगति तभी संभव है जब मज़दूर खुशहाल, सुरक्षित और सम्मानजनक जीवन जियेगा।
डॉ. अशरफ अली
