डॉ कृपा शंकर अवस्थी सम्पादक : जागता झारखण्ड पिछले कई दशकों से पर्यावरण पर जोरदार बहस जारी है। माननीय सर्वोच्च न्यायालयों में भी इसे लेकर कई याचिकाएं और निर्णय आ चुके हैं। नर्मदा बांध की ऊंचाई को लेकर आंदोलन भी चलता रहा। वनो की कटाई तो नदियों से बालू निकासी के साथ पत्थर खनन क्षेत्र में उड़ती धूल रोकने को कई नए कानून बना डाले गए। कोयला ढूलाई के लिए भी कई नियम बनाए गए। प्रशासनिक अधिकारीयों ने भी जबर्दस्त सक्रियता बनाए रखी है।परिणाम अबतक सुखद देखने को नहीँ मिले, बालू, स्टोन चिप्स मँहगे मिलने लगे। पाकुड़ के भुगर्व से उम्दा ग्रेनाइट पत्थर निकाले जाते थे, उन खदान मालिकों पर तरह तरह के दंड जड़ दिए गए। उत्खनन के लिए लाइसेंस पर भी अनेक पाबंदियां, पूरे मार्ग पर माल ढोनेवाले ट्रकों की धड़पकड़, तरह तरह के उत्पीड़नों से आजिज आकर आखिर ट्रक और ट्रैक्टर मालिकों ने पाकुड़ पत्थर मंडियों से मुंह मोड़ लिया। अंततः पत्थर व्यवसाई अपना सारा कारोबार समेट अन्य व्यवसाय की तरफ पलायन करने लगे। कभी पाकुड़ का सबसे सम्पपन्न मुहल्ला सिंधीपाड़ा देखते देखते वीरान हो गया। इससे ज्यादा अफ़सोस और क़्या होगा कि जिस जिले में कभी चार पांच हजार क्रसर मशीने घडघड़ाती रहती थी, रेलवे रैक रखने की जगह कम पड़ जाती थी, वहां का पूरा इलाका सुनसान हो गया। जिस मालपहाड़ी में लाखों मजदूरों को रोजगार मिल रहा था, वे मजदूर बाहर प्रदेशो में घर परिवार छोड़ पलायन कर गए। बाजार की रौनक़ लगभग गायब हो गई, स्थानीय छोटे बड़े दुकानदार असहाय से दिखने लगे। वहीं कूछ लोग अमेज़ॉन,आदि जैसी मल्टीनेशनल कंपनियों पर आश्रित हो गए। नियमों का पालन ईमानदारी से करने को हरेक नागरिक और व्यापारी स्वयं प्रतिबद्ध रहते आए हैं, लेकिन उन्हें विभिन्न जबरिया नियम लगाकर सताने और धन उगाही का जरिया हमारे आला अधिकारियों ने बना लिया। व्यवसाई समाज को भेंडा, और फिर सोने का अंडा देनेवाली मुर्गी को ही हलाल करने लगे। आज भी पत्थर व्यवसायियों की धरपकड़, छापेमारी कई असंगत नियमों और जबरन थोपे गए टैक्स बकाए के लिए जोरों पर है। कभी इन व्यवसाईयों का गली-कुचे छाप लेबर नेता, तो कभी दारू छाप लोकल ग्रामीण, तो कभी हमारे कुछ पत्रकार भी मुंह बंद रखने की क़ीमत वसूलने में पीछे नहीँ रहते थे। हालत तो इतने बदतर देखे गए थे कि कई बड़े अधिकारी भी पूरे अमले, कुनबे के साथ खनन क्षेत्र में धर पकड़ करने पहुँचने लगे, खाली हाथ कैसे रह जाते, नोटिस दे देकर भेड़ो को धमकाए और हल्की छुरी चलाए बिना नहीँ छोड़ते रहे। खनन व्यवसायियों की किसी समस्या का निदान करने का किसी सरकार ने भी कभी प्रयास नहीँ किया। व्यवसायियों के साथ बैठकर उनकी समस्याएं तक़ नहीँ सुनी गईं। सरकारों का यह प्रमुख दायित्व है कि वह वोटों कि फ़सल काटने के लिए तरह तरह के प्रलोभनों, फ्री बाइज के बजाए, बेरोजगारी मिटाए, मगर झारखण्ड में इसके बिलकुल उलट फले फुले व्यवसाय और धंधे खत्म कर डाले गए। क्षेत्र के प्रमुख अख़बारों से लेकर, अधिकारीयों की मीटिंग तक़ नेताओं, माननीय मंत्रियों तक़, स्थानीय व्यवसायियों ने सबों से गुहार लगाना कभी नहीँ छोड़ा, पर समाज की सारी आवाजें अनसुनी करने का नतीजा बेरोजगारी चरम स्थान तक़ जा पहुंची है। हद है कि माननीय राज्यपाल महोदय के राजभवन के सामने पिछले दो महीनों से सेवा से आकरण हटाए गए अंगिभूत इंटरकर्मी धरना देने को विवश हैं, पर उनकी सुनने को राज्य सरकार तक़ तैयार नहीँ है, उलटे उनकी जगह आउट सोर्सिंग से नए अनुभवहीन कर्मचारियों को बहाल करने का राज्य के विश्व विo में फरमान जारी किया जा चुका है। जबरन और अकारण हटाए गए सारे इंटरकर्मी पिछले दस-पंद्रह वर्षों से न्यूनतम, चार से पांच हजार रु प्रतिमाह के मानदेय पर सेवारत थे, कई अंगिभूत कोलेजों मे तो विवि द्वारा नियुक्त कर्मियों की संख्या भी गिनती भर रह गई है, उनके रिक्त स्थानों पर सरकारों ने वर्षों से कोई नई बहाली भी नहीँ की है, मगर छात्र छात्राओं के दाखिले से लेकर राज्य या विवि की सभी परीक्षाओं का दायित्व जो कर्मचारी वर्षों तक़ निभाते रहे, उन कर्मठ, ईमानदार इंटरकर्मियों को दूध की मक्खी की तरह सड़क पर फेंक दिया गया।नवयुवकों की बेरोजगारी समाज कतई वर्दास्त नहीँ करेगा। बेशुमार बढ़ती जनसंख्या जो देश, समाज, संसाधनों के लिए व्यापक आपदा बनते जा रहे। इन्हे नियंत्रित करने का कोई प्रयास नहीँ किया जा रहा है,ध्वनि प्रदूषणो को लेकर भी सरकार कान बंद किये पड़ी है, ऐसे में शांति और सुरक्षा की गारंटी सत्ता लोलुप नेता कबतक दे पाएंगे, कबतक अपना समाज चुप्पी साधे सबकुछ भोगता रहेगा, किसी के लिए बता पाना आसान नहीँ है।
