ध्वनि प्रदूषण पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के साथ राजनीति क्यों

डॉक्टर कृपा शंकर अवस्थी संपादक जागता झारखंड

ध्वनि प्रदूषण पर माननीय सर्वोच्च न्यायालय के दिनांक 18 जुलाई 2005 के ऐतिहासिक फैसले का पुरे देश में उल्लंघन जारी है. देश की सरकारें कहीं इस मामले में बेहद सख्त तो कहीँ अपने राजनितिक फायदे देख आँख बंद किये माननीय न्यायालय की अवमानना होने दे रही हैं. माननीय न्यायालय की तरफ से भी फैसले की प्रगति की रिपोर्ट सरकारों से क़भी नहीं ली जाती है. आम जनता के लिए ऐसे फैसले या तो मजाक की तरह बन गए हैं या फिर कहीँ कहीँ जनता को परेशान करने को प्रशासन के हथियार की तरह उपयोग किये जाते हैं,शादी व्याह,धार्मिक आयोजनो में इस निर्णय का इस्तेमाल कर जनता को जब चाहे परेशान कर सकती है तो कहीँ आँख कान बंद कर सोई रहती है.फैसले की कॉपीयां लगाकर शिकायत किये जाने पर भी स्थानीय प्रशासन माननीय न्यायालय के निर्णय के आलोक में कोई कार्रवाई नहीं करता है,चुंकि आम लोग रोज अवमानना के मामले को लेकर माननीय न्यायालय का दरवाजा खटखटाने नहीं जा सकते हैं जिससे निर्णय की धज्जियाँ बेफिक्र होकर प्रशासन और लोग दोनों रोज उड़ा रहे हैं.कठिनाई तब और भी बढ़ जाती है जब इस निर्णय का राजनीति और धार्मिककरण होने लगता है. ऐसे में तो माननीय सर्वोच्च न्यायालय को या सरकारों को ही चाहिए कि इस फैसले का अमान्य घोषित कर दें.जब न्यायालय को अपने फैसले की परवाह न हो,प्रशासन को मतलब न हो तो ऐसे फैसले इतिहास या नजीर बनकर क्यों रहें, साफ साफ प्रशासन और सरकारें घोषित कर दें इस ऐतिहासिक फैसले में हमलोगों की कोई रूचि नहीं है जनता रात रातभर जश्न मनाए. कोई किसी के घर के सामने डीजे बजाए, बुलेट गाड़ियों के सिलेंडर निकाल कर्कश भट भाटाते निकले, हॉर्न बजाए,विस्फोटक या धमाके वाले पटाखे छोड़ किसी को डरने की जरूरत नहीं है.ऎसा इस निर्णय का यह मतलब कदापि नहीं कि अधिकारियों के आवास के आसपास या माननीय कोर्ट परिसर के पास निर्णय बरकरार रहें, वहाँ शोर प्रतिबंधित रहें पर आम नागरिकों की चिंता से सरोकार न रखा जाए.आखिर ऐसे निर्णय की जब प्रसांगिकता ही नहीं या जब मनमानी करनी ही हो तो सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय की आवश्यकता ही क्या है. सब कान और ऑंखें बंदकर पुरे इत्मीनान से सोए रहें, शोर पर शोर न करें, ध्वनि प्रदूषण की हानि के प्रति निरपेक्ष बने रहें, भूकम्प आए,मौसम का मिजाज बिगड़े, या ग्लोबल वार्मिंग के प्रति बेफिक्र बने रहें, लोगों के पैसे इलाज में खर्च हों, किसी के हार्ट फेल हों सरकार क्यों चिंतित होना,जनता के प्रति कोई जवाबदेही की फ़िक्र चुनी सरकार क्यों करे.जिसकी नींद फजिल की दो मिनट की नमाज से बाधित होती हो सभी मस्जिद अपने अपने टाइम से लाउडस्पीकर पर आजान दें किसे फ़िक्र होगी,रात रातभर के भजन कीर्तन से जिन्हें पुण्य ही पुण्य बटोरना हो खूब बाटोरे, बच्चो की परीक्षा हो किसी के घर कोई बीमार हो ध्वनि प्रदूषण पर कोई रोक न लगे.सबों को मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करने दिया जाए, आर्टिकल 21 को संविधान से ही निकाल दिया जाए.ऎसा पक्षपात पूर्ण निर्णय समाज के तनाव का कारण बनता हो तो बने, सरकार और न्यायालय क्यों परेशान हो, मौके देख निर्णय का अनुपालन किया जाए यह देश समाज के लिए बहुत घातक है.हम बिना माइक भजन करते हैं तो वह जोश नहीं आता, अपनी पंडिताई का विज्ञापन एक रात के भजन कीर्तन प्रार्थना या 5 बेर के नमाज से कोई कैसे संतोष कर ले. प्रशासन के लिए जहमत है माननीय सर्वोच्च न्यायालय का फैसला,समाज पर भी बोझ है, क़भी शोर की अनुमति मिल जाति है क़भी ब्रेक तो ऐसी मनमानी व्याख्या कितनी उचित है कानून इतने शख्त बनाए ही नहीं गए की माननीय कोर्ट के निर्णय से कोई लाभ मिले, जनता दुतरफा मार क्यों झेले.

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