पत्थर उद्योग का इतिहास और पत्थर दिल बने समर्थ संस्थाएं।

स्वतंत्र पत्रकार और फीचर लेखक कृपासिंधु तिवारी बच्चन।

पाकुड़। पाकुड़ तकरीबन एक सौ वर्षों से पत्थर उद्योग के लिए प्रसिद्ध है। इस उद्योग के इतिहास पर नजर डालें तो यह अब एक सौ तीस साल की अपनी उम्र पूरा कर चुकने को है। अपने काले रंग , अनुपातिक दृष्टिकोण से वजन में अपेक्षाकृत हल्का , लेकिन मजबूती में बेहतर तथा उच्चतम तापमान को भी बर्दाश्त कर सकने वाला होने के साथ साथ सीमेंट और बालू की मदद से बेहतरीन पकड़ , तथा सड़क निर्माण में भी सबसे ज़्यादा उपयुक्त जैसी अपनी विशेषताओं के कारण पाकुड़ का काला पत्थर पत्थरों के बाज़ार में अपनी एक अलग उपयोगी छाप कायम करने में कामयाब रहा है।
स्वाभाविक रूप से सौ साल पहले जब निर्माण कार्यों तथा विकास की विभिन्न योजनाओं ने अपनी यात्रा शुरू की तो विभिन्न स्थानों के पत्थरों की उपयोगिता और क्वालिटी पर परीक्षण हुआ। कहते हैं कि सबसे पहले कोलकाता में ट्राम की लाइन बिछाने के दौरान पाकुड़ स्टोन को इंजीनियरों ने कई तरीकों से परखा और यहाँ बने पत्थर के ईटों को ही ट्राम लाइनों के नीचे बिछाने पर मुहर लगाई गई।
इससे पहले रेलवे लाइनों के लिए , जिस इलाके से लाइनें गुजरतीं थीं वहीं आसपास के स्थानीय पत्थरों का उपयोग किया जाता था। कालांतर में रेलवे ने अपने शोध में पाया कि पाकुड़ स्टोन के उपयोग से रेलवे की बोगियों के अंदर रेल के चलने की आवाज़ (शोर) कम होता है और पटरियों की जमीनी पकड़ सही रहने से जर्क अपेक्षाकृत कम होता है।
समय के साथ सड़क निर्माण की यात्रा में भी पाकुड़ स्टोन ने अपनी बेहतरी सावित की। पुल , पुलिया ब्रिज और बड़े पुलों के निर्माण में पाकुड़ स्टोन ने अपना स्थान इंजीनियरिंग की नज़र में वो बना लिया कि 19वीं शताब्दी के साथ ही निर्माण कार्यो में टेंडर के कागज़ातों में पाकुड़ स्टोन की अनिवार्यता को लिखित तौर पर अंकित किया जाने लगा। 19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में आज़ादी के बाद पाकुड़ के काले पत्थरों ने अपनी उपयोगिता को निर्माण के सभी पहलुओं पर सावित कर दिया था। ऐसे में एशिया के विभिन्न देशों में पाकुड़ स्टोन की गुणवत्ता ने इसकी माँग होने लगी। रेलवे से कोलकाता और फिर समुद्र मार्ग से यह विभिन्न देशों में जाने लगा।पत्थर अब पाकुड़ के लिए अब सिर्फ पत्थर मात्र नहीं रह गया, बल्कि यह उद्योग के रूप में विकसित होने लगा। इसी दौरान बड़े बड़े कारखाने और बड़े निर्माणों का दौर चला। बड़े निर्माणों और पाकुड़ स्टोन की उपयोगिता ने धीरे धीरे बड़े उद्योगपतियों को आकर्षित किया। एक समय था , जब बंगाल से प्रभावित और बंगाली समुदाय की बहुलता ने यहाँ के पत्थर व्यवसाय पर उनका अधिपत्य सा था। पाकुड़ के पत्थर व्यसाय में गैर बंगाली व्यवसायी के रूप में सबसे पहले बी एन केडिया एन्ड सन्स ने प्रवेश किया। कालांतर में धीरे धीरे सिंधी समुदाय ने अपने ईमानदार अथक मेहनत के बल पर पत्थर व्यवसाय पर अपनी पकड़ बनाई। और डिमांड की बढ़ोतरी के साथ साथ पत्थर व्यवसाय अपने शबाब पर चला गया। 80 से 2000 तक के दशकों में यह व्यसाय अपने चरम पर चला गया। जो व्यापार हजारों के आंकड़ों को पार करता हुआ करोडों के आँकड़े पर पहुँच गया , स्वाभाविक रूप से समय समय पर इसमें भी उतार चढ़ाव का दौर आता और जाता रहा।
सन 2000 के बाद इस व्यापार में भी अतिक्रमण का दौर शुरू हुआ और आसपास के जिलों में यहाँ तक कि पश्चिम बंगाल में भी पत्थर उत्पादन शुरू हो गया। ये पत्थर भी पाकुड़ स्टोन और फिर पाकुड़ क्वालिटी स्टोन के नाम पर बाज़ार पकड़ने लगा। स्वाभाविक तौर पर इसका प्रभाव यहाँ के व्यापार पर पड़ा। कुछ समय के लिए यहाँ के व्यापार पर विपरीत असर पड़ा। मंदी का दौर भी आया, लेकिन सबसे बड़ा खरीददार रेलवे होने के कारण, तथा लगातार नये रेलवे लाईनों के विस्तार ने यहाँ के इस उद्योग को जीवन देना कायम रखा। बंगलादेश और एशिया के कुछ देशों में विकास के दौर ने मांग को कायम रखा। माँग के साथ आपूर्ति भी क़ायम रहा। माइंस और मिनरल एक्ट को अतिक्रमित कर बहुत सारे माफ़िया सरीखे लोग भी इस उद्योग का अंग बनते गए। अवैध खनन, अवैध विस्फोटकों सहित अवैध परिवहन और चालानों की कालाबाजारी ने उत्पादन और आपूर्ति तो बढ़ाये , लेकिन सरकारी राजस्व को चुना लगता गया।
पत्थर के अवैध व्यवसाय के आचरण ने सरकार को तो राजस्व के थपेड़े लगाए, लेकिन पाकुड़ और आसपास करोड़पतियों की संख्या में इजाफ़ा हुआ, कालांतर में यहाँ पदस्थापित अफसरों की तिजोरियाँ भारी हुए, और काले पत्थरों के लिए विख्यात पाकुड़ काले पत्थरों में काले कारनामों के लिए बदनाम भी हो गया। फिलवक्त ई डी की कार्रवाइयाँ इस क्षेत्र के इस काले कारनामों की पुष्टि भी करता है, पर सन्तोष का विषय है कि पाकुड़ ई डी की तिरछी नज़र से अभी बचा हुआ है।
पाकुड़ के पत्थर उद्योग ने कई उतार चढ़ाव और कई पहलुओं को देखा है। तमाम बातों के बाद भी इस उद्योग की सबसे बड़ी खासियत यह रही कि, इस उद्योग ने इस क्षेत्र के लोगों को एक स्थायी रोज़गार दिया।
हालाँकि इस समय यह एक संक्रमण के दौर से गुज़र रहा है। कुछ लोगों के करतूतों ने इस उद्योग में तत्कालीन मंदी का दौर ला छोड़ा है। जो निश्चित तौर पर तत्कालीन है, क्योंकि विकास और निर्माण का दौर कभी खत्म होने वाला नहीं है।आज के दौर में इस उद्योग में होने वाली गड़बड़ियों पर अगर सन्थाल परगना में रोक लगा दी जाय तो झारखंड की राज्य वजट को पूरा किया जा सकता है, ऐसे में गड़बड़ी की मात्रा का अंदाजा लगाया जा सकता है।हंलांकि अभी जिला प्रशासन की सख़्ती सराहनीय है, लेकिन डाल डाल और पात पात वाली कहावत को यहाँ भी नकारा नहीं जा सकता।
सिर्फ़ जिले के प्रशासनिक मुखिया के प्रयास नाकाफ़ी सावित होते हैं।
पाकुड़ के लोग , मजदूर और इससे जुड़े व्यवसायी कहाँ जाएं रोटी कमाने? सरकार सिर्फ़ उपयुक्त व्यक्ति और संस्थाओं को यहाँ खनन पट्टा दे , साथ ही ईमानदार अफसरों की पोस्टिंग यहाँ करे , तो एस पी टी एक्ट , माइंस एंड मिनरल एक्ट , वन अधिनियम आदि के साथ इस उद्योग को न सिर्फ़ फिर से बेदाग़ कमाई का जरिया बना सकता है, बल्कि लाखों लोगों के रोज़गार को पुनः स्थायित्व दे सकता है। आवश्यकता है सिर्फ़ एक राजनैतिक इच्छाशक्ति की।

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