राजकुमार भगत जागता झारखंड संवाददाता।
पाकुड़: बीड़ी नाम सुनते ही कुछ धुआं धुआं सा लगता है? किंतु यहां की एक बड़ा वर्ग बीड़ी उद्योग से जुड़ा है ।खासकर महिलाएं । जो अपनी हुनर की प्रतिभा को दिखाते हुए अपने घर को संभालती हैं और सजाती भी हैं। पर अब इन पर भी ग्रहण लग रहा है । इसे लेकर महिलाएं काफी चिंतित है।पाकुड़ बीड़ी निर्माण के लिए मशहूर है। यहां मुसलिम के अलावा गैर मुसलिम समुदाय के लोग बड़ी संख्या में घरों में बीड़ी बनाने का नित्य प्रति कार्य सामूहिक रूप से करती हैं। एक अनुमान के अनुसार बीड़ी मजदूरों की संख्या 30 हजार से भी अधिक है। नेशनल फाउंडेशन फॉर इंडिया ने इसे ट्रांजिशन के दौर में देश के सबसे संवेदनशील जिलों में रखा है और झारखंड के दो अन्य जिलों रांची व पलामू के बाद यह तीसरा जिला है जो इस श्रेणी में आता है।एनएफआइ के अध्ययन आधार कोयला व उस पर आधारित उद्योग तीन प्रमुख उद्योग पॉवर प्लांट, स्पंज आयरन व स्टील प्लांट हैं।पाकुड़ में इन तीनों में कोई इकाई नहीं है। यानी पाकुड़ के जनजीवन के लिए यहां चुनौतियां अधिक मुश्किल भरी होंगी। पाकुर पत्थर एवं बीड़ी उद्योग के लिए मशहूर है। अभी सरकार के सौजन्य से कई और लघु उद्योग महिला शखी के द्वारा चल रहे हैं। किंतु इसका प्रचलन बीड़ी एवं पत्थर उद्योग जैसा नहीं है।आज भी यहां के अधिकांश श्रमिक बीड़ी उद्योग पर निर्भर है। यदि सच माने तो बिना पूंजी के यह उद्योग गरीब परिवारों की रोजी-रोटी का जरिया बना हुआ है। पाकुड़ के रहसपुर,इलामी, चांचकी, झिकरहाटी, सितापहाड़ी,नशीपुर, चेंगाडांगा, नरोत्तमपुर, संग्रामपुर, हमरुल, फरसा ,भवानीपुर, जयकिस्टोपुर समेत पूरे जिला भर के अधिकतर गरीब परिवार की साधारण महिलाएं इस बीड़ी उद्योग से जुड़ी हैं।
बीड़ी से जुड़े महिला मजदूर कहती है कि सुबह से लेकर रात नौ-दस बजे तक काम करने के बाद भी 700 से 1000 तक बीड़ी बड़ी मुश्किल से बना पाती हैं । बीड़ी के अलावा हम लोगों के पास रोजी-रोटी चलाने के लिए कोई और रोजगार नहीं है। सरकार हमारे लिए कोई उचित रोजगार की व्यवस्था करती तो अच्छा होता। ओट के समय सभी संतावना देते हैं फिर कभी किसी का दर्शन नहीं होता। महिलाएं कहती है कि पाकुड़ जिले में अनेक क्रशर व खदानें बंद पड़ी है। इन क्रसर खदानों में पति काम कर गुजारा करते थे। पत्थर खदानों के बंद होने से घर का गुजर-बसर करना एवं रोजमर्रा के सामानों की पूर्ति करना परिवार वालों के लिए टेढ़ी खीर हो गई है। इसलिए कुछ लोग दिल्ली, बंबई या अन्य राज्यों जिलों में रोजगार की तलाश मे जा रहे है। फिर बीड़ी के काम में गिरावट आ रही है, ऐसे में आने वाले समय में यदि बीड़ी उद्योग बंद हो जाता है, तब गुजर-बसर कैसे चलाएगें? 700 से लेकर 1000 हजार बीड़ी बनाने पर रोज 150 से 200 रुपया होता है। तंबाकू से बीड़ी बनाने पर इसका स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ता है। किंतु घर संसार चलाने के लिए यह कार्य करना पड़ता है। बीड़ी बनाने वाले मजदूरों को हमेशा कमजोरी, सांस लेने में तकलीफ, पीठ के निचले हिस्से में दर्द, खांसी,ब्रोंकाइटिस आदि जैसी समस्याओं से जूझना पड़ता है। बीड़ी उद्योग मजदूरों ने सरकार की और आशा लगाए बैठे हैं कि सरकार उनकी सुनेगी और एक दिन उनकी जिंदगी सुधरेगी ?
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