एक दिन हम सब अपनी-अपनी चुप्पियों को लेकर मर जायेंगे और हमारा सबसे आखिरी ख्याल होगा, हमें बोलना चाहिए था : अगुस्टीना सोरेंग

जागता झारखंड ब्यूरो सिमडेगा :- विश्व आदिवासी दिवस के अवसर पर जब यह 31वाँ विश्व आदिवासी दिवस मन रहा है आदिवासियत के बारे एवं आदिवासी समाज के बारे हमें बोलना बेहद जरुरी एवं प्रासंगिक हो गया है। UNO ( संयुक्त राष्ट्र संघ) के कार्यदल UNWRIP( United Nation Working Group Of Indigenous Population) ने 09 अगस्त 1982 के दिन पहली बैठक की थी। 1993 के UNWGIP के 11वें अधिवेशन में आदिवासी घोषणा प्रारुप UNDRIP(स्वदेशी लोगों के अधिकारों पर संयुक्त राष्ट्र संघ घोषणा पत्र ) जो आदिवासियों के व्यक्तिगत और सामूहिक अधिकारों को निर्धारित करता है उनके भूमि अधिकार, पर्यिवरण संरक्षण, भाषा, संस्कृति, विविधता, सांस्कृतिक विरासत को मान्यता मिलने पर 1994 को आदिवासी वर्ष व 9 अगस्त को आदिवासी दिवस घोषित किया। इसी अधिवेशन में व्यापक चर्चा के बाद 21 दिसम्बर 1994 से 20 दिसम्बर 2004 को आदिवासी दशक घोषित किया था। UNO ( संयुक्त राष्ट्र संघ) ने ऐसा आदिवासियों को हक अधिकार दिलाने और उनकी समस्याओं का निराकरण जैसे भाषा, संस्कृति, इतिहास के सरंक्षण के लिए किया। ज्ञात हो कि इस वर्ष 2024 के विश्व आदिवासी दिवस के लिए UNO ने जिस विषय पर अपना ध्यान केंद्रित किया है वो ” स्वैच्छिक अलगाव और प्रारंभिक संपर्क में स्वदेशी लोगों के अधिकारों की रक्षा” रखा है। ज्ञात हो कि विश्व के 90 देशों में आदिवासियों की आबादी है जिनमें 7000 से अधिक भाषाओं की विविधता है किन्तु 40% स्वदेशी भाषाओं पर खतरा है जिसे देखते हुए UNO ने 2022-2032 के दशक को” स्वदेशी भाषाओं का दशक घोषित किया है एवं भाषाओं के सरंक्षण पर भी काम हो रहा है। 5000 से अलग संस्कृतियों के साथ विश्व की 6% आबादी स्वदेशियों की है। ज्ञात हो कि “स्वैच्छिक अलगाव और प्रारंभिक संपर्क में मुख्यधारा से दूरी के अभ्यास ने आदिवासियों के क्षेत्र के जंगलों के सरंक्षण में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है। जिस तरह से आदिवासियों ने प्रकृति को पुरखा माना और पूजा करते हैं एवं कभी भी किसी की गुलामी स्वीकार नहीं की..इन विशेषताओं के कारण आदिवासी आज दमनकारी तरीकों से शोषित हो रहे हैं। यहाँ यह बताना बेहद अनिवार्य है कि भारत देश ने तो आजादी के 76 वर्ष गुजरने के बाद भी सेंसस में आज तक “आदिवासी” चिन्हित करने से वंचित रखा है जो देश के भीतर आदिवासियों के लिए नीतिगत पैरवियों की पोल खोलती है। यही नहीं झारखंड में पेसा कानून लागु नहीं होना, स्थानीय नियोजन नीति में आदिवासियों का हिस्सा लील गए राजनैतिक लोग आदिवासियों के नाम पर उनके अधिकारों को छीन रहे हैं। जिन जंगलों और प्रकृति के संवर्द्भन,अपने अधिकारों के लिए आदिवासियों ने 1840 से आंदोलन और विद्रोह शुरु किया वो आज भी बदस्तूर जारी है। लद्दाख में चल रहे “क्लाईमेट फेस्ट” छत्तीसगढ़ का “हसदेव अरण्य” का आंदोलन, झारखंङ के ” नेतरहाट फील्ड फायरिंग रेंज” के दशकों से चल रहे आंदोलन आदिवासियों के लिए आज की चुनौतियों की बानगी मात्र हैं। इन सबमें आदिवासी महिलाओं का योगदान जानना भी महत्वपूर्ण है जिस तरह से आदिवासी महिलाएं बिना शोरगुल के अपने जल, जंगल, जमीन, पहाड़, मैदान, गरिमा और न्याय की लड़ाई लड़ रही हैं वो आज तक जानी नहीं गई है। हालांकि आदिवासी महिलाएं कभी रुकी नहीं हैं। प्रख्यात लेखिका अरुंधति राय ने 2010 में बस्तर माओवादी क्षेत्र की यात्रा के बाद “आउटलुक” पत्रिका में लिखे अपने लेख में आदिवासी महिलाओं के बारे लिखते हुए बताया कि बस्तर के “क्रांतिकारी आदिवासी महिला संगठन” जिसकी 90000 ( नब्बे हजार) सदस्य हैं संभवतः भारत का सबसे बड़ा महिला संगठन है, जो जंगल कोरपोरेट लूट और सरकार की घुसपैठ के साथ आदिवासी समाज के अंदर व्याप्त पितृसत्ता से लड़ने का काम करता है। वहीं की आदिवासी महिला “सोनी सोरी”, मरकाम हिड़मे, कवासी हिङमे इन तीनों के साथ क्रूर पुलिस दमन का घिनौना प्रयोग यह बताने के लिए काफी है कि जब आदिवासी महिलाएं जंगल बचाने अपने अधिकार के लिए लङती हैं तो उनको तोड़ने के लिए घुसपैठ सरकार और कोरपोरेट लूट वाले क्या करते हैं. यहाँ बता दूं “सोनी सोरी” को पुलिस हिरासत में उनके यौनांगों में पत्थर भरे गए, उनके मुँह में ज्वलनशील रसायन मला गया, कई मुकदमे दर्ज किए गए। लेकिन जैसा कि आदिवासी किसी की गुलामी स्वीकार नहीं करते सोनी सोरी ने हार नहीं मानी और वे जंगल बचाने से आगे देश बचाने की लङाई की भी आवाज बन चुकीं हैं। भारत देश UNO का सदस्य होने के नाते UNDRIP दस्तावेज पर हस्ताक्षरकर्त्ता होने के कारण आदिवासियों के व्यक्तिगत एवं सामूहिक अधिकारों की रक्षा करने को प्रतिबद्बता दर्शाता है किन्तु असलियत कुछ और ही है, आज जिन विशेष चुनौतियों का सामना आदिवासी समुदाय कर रहा है वो है अपने संसाधनों “जंगल, जमीन की रक्षा के साथ ही अपने समाज की औरतों के गरिमा और सम्मान को बचाने को लेकर मणिपुर आदिवासी महिलाओं के ऊपर जिस तरह अमानवीय एवं जघन्य जातीय हिंसा शारीरिक और मानसिक जुल्म संगठित तरीके से संसाधनों की लूट के लिए किया गया यह शायद ही कोई कभी भूल पाए। क्या आप जानते हो नेशनल क्राईम रिकोर्डस ब्यूरो ( NCRB) के तहत एक दिन 04 में आदिवासी महिला या लड़की का बलात्कार होता है। उक्त रिकोर्ड यह भी बताता है कि आदिवासी महिलाओं के ऊपर 14.3% के अत्याचार बढ़े हैं,आदिवासी महिलाओं के न्याय की पहुँच 25% केस पेङिग हैं 2022 में जबकि कानूनी प्रावधान 2 महीने के भीतर न्याय सुनिश्चित करने को निर्देश देती है। इधर अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति ( अत्याचार निवारण) अधिनियम ,1989 एवं नियम 1995 आदिवासियों के सुरक्षित और गरिमा के साथ जीवन जीने का अधिकार को लागू करने के न्यायक्षेत्र में क्रमागत उन्नति का द्वार खोलने के लिए तथा आदिवासियों के खिलाफ होने वाले अपराधों को रोकने के उद्देश्य से बनाए गए किन्तु दुर्भाग्य से उक्त कानूनों को प्रभावी तरीके से क्रियान्वयन में लाना अभी भी सपना है। जिस भाषा की विविधता को हम आज जश्न बोलके सम्मान दे रहें हैं ये आम दिनों में आदिवासियों के लिए उपेक्षित होने का वजह बन जाता है, उनके सरल स्वभाव और ईमानदार एवं प्रतिस्पर्द्धा से दूर रहने की मूल स्वभाव को कमजोरी बताकर उनके जमीन और संसाधनों की हेराफेरी किसी से छुपी नहीं है। राँची में जमीन दलालों द्वारा आदिवासी जमीनों के लिए गोली चलाकर हत्या के मामले यह बताने को काफी हैं कि आदिवासी के लिए संघर्ष खत्म नहीं हुआ है बल्कि विकराल हुआ है, आज के दिन हम यह बताना चाहते हैं कि जो शक्तिशाली और प्रभावशाली सरकारें और प्रशासन, संस्थाएं आदिवासियों के सरंक्षण के लिए जिम्मेवार हैं उन्हें आदिवासियों के संपूर्ण विरासत उनके संस्कृतियों की विविधता और आदिवासी जनों को बचाने और उनके महिला वर्ग के गरिमा एवं सम्मान को बचाने के लिए आदिवासियों के कानूनों को क्रियान्वयन तथा जरुर हस्तक्षेप कर मजबूत एवं बलवान करना होगा अन्यथा आदिवासियों के लिए परिसंपत्ति बांट देना मात्र छलावा होगा चूंकि आज भी आदिवासी ही समाज के सबसे हाशिए एवं वंचित वर्ग हैं तथा अपने सरल स्वभाव के कारण मुख्यधारा की चालाकियों और लूट से शेषित वर्ग हैं। स्वयं आदिवासी समुदाय को भी संगठित होकर नए तरीके के रणनीति एवं वकालत करने की अनिवार्यता है वरना हमारे अधिकार लूट लिए जायेंगे। ज्ञात हो अगुस्टीना स्वयं आदिवासी समुदाय से आतीं हैं एवं समाज के उन्नति एवं जागरुकता के लिए पिछले 13 वर्षो से संघर्षरत एवं बुलंद हस्ताक्षर हैं।

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